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Friday, October 16, 2009

एक पहल.......दीपावली पर्व पर ....!

आईये ! आगे आयेंउनके लिये भी । जो नहीं याद करना चाहते । किसी भी ऐसे त्योहार को जो रख दे उनकी दुखती रग पर हांथ । जहां दो वक्त की रोटी भी आसानी से नसीब नहीं होती । ये कर्मकाण्ड, त्योहार, धार्मिक बातें केवल दूसरों से सुनने के लिये होती हैं । अपनाने के लिये नहीं । जीवन की सार्थकता पेट पालने से ऊपर हो ही न । आज खुशियां भी खरीदी जाती हैं मोलभाव करके ।

क्या दीवाली ..? क्या होली..? दो वक्त की रोटी मिले और सुकून की नीद कि कल नहीं खोलना होगा काम । मालिक अच्छा मिला है । आसानी से लम्बी अवधि तक काम करने देगा । बस इनकी तो रोज दिवाली है । अरे क्या सोचना कि मेरे पास वह सब हो जाय जो बडे़ लोगों के पास है । यह भाव घर कर जाता है वहां कि हमें अरमान संजोने का कोई हक नहीं । ये सब बड़ बोली बाते हैं । अरमान संजोया कि अरमान टूटते देरी नहीं लगती ।

हम आज सक्षम हैं । रंग - रोगन कराने में । त्योहार की सार्थकता सिद्ध करनें में । अपने घरों में खुशियों की बहार तो सभी लाते हैं । मंदिर में दिये तो सभी जलाते हैं । अरे...! मंदिर में , अपने घरों में दिया जलाने के साथ - साथ उस घरों के लिये भी पहल करें जहां दीपावली पर दीपों की अवली नहीं होती । किसी तरह से गुलजार हो जाती है सांझ- बिहान के इन्तजार में । वहां तो बस चांदनी रातों का इन्तजार होता है कि झुरमुट से निकले चांद और छप्परों के बीच से हो गुजरे जिससे झुग्गी में रहे रातों में भी हल्की सी रोशनी भिनसार होने तक ।

आईये ! जितना संभव हो उतना ही सही । दीपावली के अवसर पर । अपनी परिधि में । तलाशें वह घर । जहां संझवत भी आसानी से नहीं लगता । जलायें एक दीया दिवाली के दिन । रोशन हो जाय उनका भी घर । और खिला दें मिठाई उन्हें भी । उन्हें भी खुशी हो हमारी खुशी पर । जल न जाय उनका हृदय । आह न लगे उनकी । तभी होगी -.........शुभ दीपावली..........!

Thursday, October 15, 2009

कल ही जमां कर देंगे चिन्ता मत करिये ......!

एक ऐसी साख जिसका डंका कहां नहीं बजा । विश्वसनीयता के मामले में समाज का कोई ऐसा वर्ग नहीं जो उंगली उठा सके । मामला वर्षों के भरोसा निभाने का जो ठहरा । भारत की बीमा कंपनी-"भारतीय जीवन बीमा निगम" जिसने कभी सोचा भी न होगा कि मुझे अपने ही लोग पैरों में कुल्हाड़ी मार जनता को धोखे में रख अपना व्यवसाय निर्मित करेंगे । बात एल. आई. सी. अभिकर्ताओं की कर रहा हूं । जिसमें कुछ कथित संभ्रान्त हैं । नाम न लेना ही श्रेयश्कर होगा । लोगों को पालिसी करने की ओर आकर्षित करने के लिये लोक-लुभावन बातों से उनके सुन्दर भविष्य के प्रति आश्वस्त कराना कि आप जबरदस्त फायदे में होंगे आपके सभी सपनो को एल. आई. सी. साकार करेगी । दुर्घटना हितलाभ सहित ।

आप पालिसियां करायें और निश्चिन्त हो जांय । आप को प्रीमियम के लिये कोई समय सीमा नहीं । हम हैं ना ।
आगे पीछे भी दे दीजियेगा । भला कौन इस चिकनी चुपड़ी बातों में नहीं फसेगा और वह भी मानवीय गुणों से अछूता कैसे रह सकता है ? बेचारे आ फंसते हैं इनकी बातों में । करा लेते हैं अच्छी पालिसियां । जिसके प्रीमियम की रकम भी मोटी होती है । कोई कितने अरमान संजोता है अपने भविष्य के प्रति । पालिसी गड्ड में गिरेगी ऐसा कभी कोई नहीं सोचता । आपकी पालिसी शुरू हुई ,शुरू होता है सिलसिला प्रीमियम जमा करने का । आप चिन्ता न करें क्या जरूरत है नेट बैंकिंग की ? क्या जरूरत है आपको एल. आई. सी. आफिस जा लाईन में लग चक्कर लगाने की । हम आप के यहां खुद आकर पैसा ले जायेंगे । आपको परेशान भी न होना होगा ।

ऐसे दस- बीस लोगों की भी पालिसी हो जाय तो इनका साईड बिजनस आराम से चलता है । कारण कि यह आप से प्रीमियम माह की दो-चार तारीख तक आप से पैसे ले लेते हैं । उस माह का पचीस - छब्बीस दिन और अभिकर्ताओं को एल. आई. सी. अगले माह की अन्तिम तारीख तक पैसा जमा करने की छूट उन्हें दे देती है तात्पर्य कुल मिला कर पैसा उनके पास लगभग दो माह में कुछ दिन ही कम के बराबर रहता है । ये लोग पैसे का पूरा इस्तेमाल करते हैं । यह बात कहां तक उचित है ? कभी- कभी ऐसा भी होता है कि पैसा बराबर लेने के बाद भी समय - समय पर प्रीमियम भुगतान नहीं होता । जब आप जा कर स्टेटस देखते हैं तो पता चलता है कि आपकी दो- तीन किश्त बकाया है जबकि आप अपना प्रीमियम समय से अभिकर्ता को दे चुके होते हैं । तफ्तीस करने पर ये अभिकर्ता हांथ जोड़ कर खडे़ हो जाते हैं कि भईया माफ करिये हम इतने व्यस्त थे कि जमा नहीं कर पाये । कल ही जमां कर देंगे चिन्ता मत करिये ब्याज भी मैं ही दूंगा क्योंकि देरी भी हमीं से हुई है ।

अरे पालिसी धारक के साथ इतना बड़ा खिलवाड़ । अगर ब्याज सहित जमा करने की सोच ये समय से प्रीमियम जमा न करें बीच में यदि कोई असामयिक दुर्घटना घट जाय तो रिस्क की भरपाई कौन करेगा ? ये करेंगे ? एल. आई.सी. तो सीधे मुकर जायगी कि आप का प्रीमियम समय से नहीं जमा है । पालिसी रनिंग कण्डीशन में नहीं है हम दावा का भुगतान नहीं कर सकते । एल. आई. सी . साक्ष्य के आधार पर मुकर जायगी । इधर समय से प्रीमियम अभिकर्ता को देने वाला दुनिया से चला जाय। नामिनि को भुगतान प्रीमियम के पैसे से खेलने वाले ये अभिकर्ता कर सकेंगे ......?

Saturday, October 3, 2009

विश्व पर्यावरण संकट......


आज समूचा विश्व पर्यावरण संकट से जूझ रहा है । 1970 के दशक में पर्यावरणीय विचारात्मक आन्दोलन का प्रारंभ माना जाता है । इसको लेकर हो रहे राजनीति को हरित राजनीति की संज्ञा दी गयी । पर्यावरणवाद के समर्थन में यह कहा गया कि यह विरासत की वस्तु न हो कर भावी पीढ़ी के लिये धरोहर है । पर्यावरण के प्रति जागरूक होना हमारा नैतिक कर्तव्य है । इससे मुह मोड़ के केवल आप खुद को धोखा दे सकते हैं ।

इसकी रक्षा के प्रति हमारा कर्तव्य है कि हम सजग हों । आर्थिक विकास की होड़ में हमने पर्यावरण को जितनी मात्रा में क्षति पहुंचायी है , प्राकृतिक संसाधनों का विदोहन किया है ठीक उसके समानान्तर संरक्षण के लिये किस हद तक प्रयास किया है । खनिज पदार्थों का नियोजन किये बिना अन्धाधुंध खनन के कारण जो अम्ल बहाये गये हैं जिन्होंने जल स्रोतों को पूर्णतया विषाक्त करके रख दिया है ।

नदियां यूं ही नाले में परिवर्तित हो रही हैं । कल कारखानों की चिमनियों से और मोटर गाड़ियों के धुओं से निकले हानिकारक रासायनिक पदार्थों ने जितना वायु प्रदूषण किया है वह जीव जन्तुओं और पेड़ पौधों के स्वास्थ्य के लिये कम हानिकारक है । उद्योगों से पैदा होने वाले कचरे और न्युक्लियर पावर के प्रयोग से पैदा होने वाले रेडियोधर्मी रिसाव से क्या धरती रहने योग्य बच सकेगी ?

पर्यावरणवाद ने हमेंशा से आर्थिक संवृद्धि पर मानवीय मौलिकताओं को वरीयता दी है । जिससे कि सबका ध्यान इस ओर आकृष्ट हो ही साथ ही ऐसा कार्यक्रम बनाकर निरन्तर प्रयास जिससे सरकार काभी ध्यान आकृष्ट हो सके ।

Friday, October 2, 2009

गांधी जी और आज का परिप्रेक्ष्य....!

गांधी नाम लेते ही मोहन दास करमचन्द गांधी आ खड़े होते हैं मानस पटल पर । बापू,राष्ट्रपिता और भी कई नामों से नवाजे जाने वाले । एक ऐसा व्यक्त्तित्व जिसने जीवन में किसी भी प्रकार के अस्त्र शस्त्रों को स्थान नहीं दिया । इसकी भरपाई के लिये इनके पास इनके विचार थे जिसकी सहायता से इन्हों ने ब्रिटिश शासन की चूलें हिला दी । आंखों पर चश्मा हांथों में लाठी, एक घड़ी और बदन पर एक खादी धोती । किसी आकर्षक व्यक्तित्व के लिये इतना काफी है !

"यंग इण्डिया"(1927) में गांधी जी ने कहा था -
"मेरी शिक्षायें केवल काल्पनिक या व्यावहारिक नहीं हैं, मैं वही कहता हूं जो प्राचीन लोगों ने कहा था । उन्हीं की बातों की शिक्षा देता हूं । मेरा दावा सिर्फ इतना ही है कि ये शिक्षायें सभी अपने जीवन में उतार सकते हैं,क्योंकि मैं ऐसा कर सकता हूं और मैं भी और लोगों की तरह ही एक साधारण व्यक्ति हूं । मुझमें भी वही कमजोरियां हैं जो और लोगों में होती हैं ।"

बापू हमेशा प्रासंगिक रहे और आगे भी रहेंगे लोकतंत्र और जनता के संबंध में उन्होंने "हरिजन"(1939)में कहा था -
"सच्चा लोकतंत्र और जनता का स्वराज कभी भी झूठे और हिंसात्मक ढंगों से नहीं आ सकता है । इसका कारण है कि हिंसा से आये स्वराज में विरोधियों को दबा दिया जाता है या उनका सफाया कर दिया जाता है । उसमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता नहीं रहती है । व्यक्तिगत स्वतंत्रता केवल पूर्ण अहिंसात्मक राज्य में ही रह सकती है ।"

आज गावों में विवादों के निपटारों के लिये मोबाइल कोर्टॊं की बात सामने आयी है कि विवादों के निपटारों के लिये प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट वाली अदालतों से निपटारा किया जायगा,ये अदालतें बसों से या सरकारी गाड़ियों से गावों को जायगीं ।

इस संबंध में गांधी जी के विचारों का अवलोकन किया जाय तो स्पष्ट होगा कि "हरिजन" (1939) में उन्होंने कहा था - "शक्ति का केन्द्र दिल्ली, बम्बई या कलकत्ता जैसे शहरों में है मैं इसको सात लाख गांवो में बाट दूंगा ।"

गांधी जी नें सत्य और अहिंसा के सिद्धान्तों के आधार पर मानवता को समाज के नव-निर्माण की नई राह दिखाई । जिसे हम कभी भी भुला नहीं सकते ।

Saturday, September 26, 2009

यह दुनियां है स्ववित्तपोषित शिक्षकों की .....!

आईये रूबरू कराता हूं एक ऐसी दुनियां से जिसमें रहते हैं ऐसे लोग जिनके योगदान को आज की शिक्षा व्यवस्था में कम कर के नहीं आंका जा सकता । यह दुनियां है स्ववित्तपोषित शिक्षकों की । चाहे वह इण्टरमीडिएट लेवल के हों या उच्च शिक्षा के । कभी उनका चेहरा खिला हुआ नहीं दिखता । कारण आप समझ सकते हैं ।

इनके प्रति हो रहे भेदभाव को लेकर जो भी कदम उठाया जा रहा है वह कहीं से भी उनके भविष्य के प्रति आश्वस्त होता नहीं प्रतीत होता । वह अपने योग्यता को ले कर सशंकित हो जाते हैं कभी कभी । क्या इनकी नियुक्ति केवल प्रवक्ता कहे जाने के लिये है । इन्हें समाज में देखा भी जाय तो केवल इस नजरिये से कि अरे ! ये तो एस. एफ. वाले हैं । साथ ही शिक्षक समाज में भी उचित स्थान प्राप्त नहीं होता ।

कभी हमारी सरकार यह सोचती है कि यह लोग किस तरह की जिन्दगी जीते हैं ? कायदन इन्हें जो तनख्वाह दी जाती है उससे अधिक उच्च शिक्षा में फेलोशिप मिलती है । सच है कि शिक्षा व्यवस्था के लिये सरकार का बड़ा लम्बा - चौड़ा बजट पास होता है । हर दस वर्ष में वेतन आयोग नये वेतन की संस्तुतियां जारी करता है । बढ़ी हुयी धनराशि का बोझ सरकार को उठाना पड़ता है । जिससे उबरने में उसे बहुत जुगत करनी पड़ती है । लगता है शायद इसी लिए सरकार इधर ध्यान नहीं दे पाती ।

यह सब देखकर स्ववित्तपोषित शिक्षकों के मन में भी कुछ ही बढ़ी हुई सेलरी के प्रति मोह जागना स्वाभाविक है और लग जाते हैं इस प्रयास में कि हमें भी बढ़ी हुई सेलरी प्राप्त हो । किस प्रकार से अपने प्रबन्धन से बात की जाय यह भी रास्ता ठीक तरह से नहीं सूझता । क्योंकि अतीत में प्राप्त निराशा को लेकर भिन्न- भिन्न शंकायें उत्पन्न होना शुरू हो जाती हैं । ज्यादा प्रयास भी किया तो वह नौकरी जो है उससे भी हांथ धोना पड़ सकता है । साथ ही आप पर अनुशासनिक कार्यवाही करके संस्थान से बाहर निकाल दिया जाता है । क्यों कि नियोक्ता कुछ भी कर सकने में सक्षम है!

सारी योग्यता होने के बाद भी यह अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज नहीं करा पाते यह । उसके पीछे का भाव जगजाहिर है । एक तो तनख्वाह कम..! दूसरी ओर जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं को प्राप्त करने में मंहगाई की मार । इनका खाली समय सार्थक उपयोग में नही जा पाता कि ये कुछ और बेहतर भी सोच सकें आने वाले कल को बेहतर बनाने के लिए ।

सरकार निजी संस्थानो को धड़ाधड़ मान्यता दे रही है पर क्या इन संस्थानो में नियुक्त शिक्षको के प्रति भी ध्यान है , इनका भी भविष्य उज्ज्वल हो सकेगा । न मिले इन्हें सरकारी शिक्षको के समान वेतन पर कोई ऐसा मध्यमार्ग निकले कि ये सन्तुष्ट भी हो सकें और अपने भविष्य के प्रति आश्वस्त हो सकें...!

Thursday, September 24, 2009

हां ! सेलरी चली गयी चन्दे में .....!

हां ! सेलरी चली गयी चन्दे में । बहुत ही अजीब महसूस होता है । तरह तरह के लोग होते हैं ये चन्दे वाले । न जाने कौन सा पाठ पढ़ कर चन्दा काटने की कारगुजारी शुरू कर देते हैं । इनका बाजार हमेशा गर्म होता है । कभी भी खाली नहीं रहते । इनका मौसम सदाबहार है । आ जाते हैं सड़क पर । अपने लाव लश्कर के साथ अंजाम देने अपने काम को । बड़ी बारीकी से पेश आते हैं । शुरुआत होती है साल के आरंभ में वसंत पंचमी से फिर राम नवमी,विश्वकर्मा पूजा, दुर्गा पूजा, काली पूजा, गणेश पूजा , । ये तो धार्मिक माध्यम हैं । और भी मायने हैं जैसे - गरीब की बेटी की शादी का बहाना,होली मिलन, सांस्कृतिक आयोजन, समाज कार्य, लोक हित, सम्मान समारोह आदि ।

क्या कहते हैं -- अरे साब जी ! इतना तो ठेले वाले देने में अपनी तौहीनी समझते हैं । आप तो गाड़ी घोड़े से हैं । इन चन्दे लेने वालों को कौन समझाये कि ठेले और खोमचे वालों का दायरा अपने सीमित दायरे में होता है । यहां तो घर से निकलो सड़क पर हर चार पांच किमी पर रोकने वाले मिल जाते हैं । सबको अपनी आस्थानुसार सन्तुष्ट करना होता हैं । सड़क पर चलना जो है(आशय समझ सकते हैं)।

कभी कभी विवेक साथ नहीं देता कि इनके साथ कौन सा बर्ताव हो । अरे अगर उत्सव संपादित करना ही है अपनी क्षमतानुसार ही करें क्या जरूरत है कि शक्ति प्रदर्शन के लिये अन्य राहगीर पर पिल पडे़ । यह भी कोरा सच है कि प्राप्त धनराशि का सार्थक उपयोग हो ,ऐसा प्रतीत नहीं होता । और भी कहते हैं -- इतना कम न दीजिएगा कि हम लोगों को कुछ कहना पडे़ । अपनी मर्यादा का ध्यान अवश्य करियेगा । यहां तक कि पिछली रसीद तक दिखाने को तैयार हो जाते हैं ।

अभी मंहगाई ने क्या कम बजट बिगाड़ा था । कितने सामंजस्य के बाद सुविधाओं को सीमित करने की बात ही हो रही थी कि मर्यादा और आस्था के साथ सामंजस्य का कार्य व्यापार ने तो निचोड़ के रख दिया ...?

Monday, September 21, 2009

विचार क्रान्ति के माध्यम से ...!

आज कितना आसान हो गया है इस भौतिकवादी दुनियां में अपनी संवेदना को ढूढना । रोज सुबह होते ही इस फिराक में कि कब फुरसत मिले और आ जाऊं उस जगह जहां ऐसी दुनिया बसती है जहां कोई अपने पराये का भेद नहीं । बस विचार क्रान्ति के माध्यम से ही हार्दिक और मानसिक शान्ति की खोज में तल्लीनता से एक कुनबा लगा है । जो बिना किसी भेदभाव के अपने विचारों से सबका उत्साहवर्धन करते हैं । किसी भी प्रकार से प्राप्त जानकारी यदि प्रासंगिक है उसे अवश्य ही ब्लाग पर डालते हैं जिससे सभी ब्लागर इसका समुचित लाभ उठाकर अपनी जिज्ञासा को शान्त कर सकें ।

यथार्थ जीवन में दिख रहा भ्रष्टाचार देख कर मन ही मन उद्वेलित हो उठता हूं । सच है कि यहां कोई अपना पराया नहीं पर स्वार्थ के वशीभूत हो अपनेपन का स्वांग रचना और काम निकल जाने के बाद आसानी से अलग कर देना जैसे आम बात हो गयी है ।जब देखो तब अपनी डफली बजा बजा खुद को सिद्ध करने की बात होती रहती है ।

सामान्य जीवन में दिख रहा उहापोह, ऊंच नीच का भाव,ईर्श्या , जलन, पूर्वाग्रह और भी बहुत कुछ । ये सब क्या मनः स्थिति को अवसाद से भरने के लिये कम है । सारे सवालों का जवाब दे पाना आसान नहीं । जाय तो जाय कहां आदमी । दहलीज से कदम बाहर ज्यों ही निकलते हैं ,सामना इन्हीं लोगों से होना है कदम कदम पर । खुद को क्षमतानुसार अभिव्यक्त करने का कोई स्थान ही नहीं । कम से कम संयोग से ही सही जितना समय मिल जाय उतना ही मनोदशा को स्वस्थ करने के लिए ब्लागिंग मंच तो है । यहां ऐसी दुनिया है जहां निरपेक्ष भाव से अभिव्यक्ति को स्थान मिल रहा है । सीधे तौर पर कोई पूर्वाग्रह नहीं दिखता ।

संवेदना और विचारों के पुष्ट होने का बेहतर मार्ग है ब्लागिंग । बेहद जरूरी है यह । शायद इसके बारे में जिसने इसे बनाया इतना सफल होने की स्वस्थ कल्पना उसने भी न की होगी । यह वृक्ष आज इतना विशाल फलक वाला होगा जिसमें हम सब अपने विचारों को प्लेटफार्म दे सकेंगे ...! और इतना फूलेगा फलेगा.... ।

Sunday, September 20, 2009

वाद विवाद को गति देने से......

हर विचार ,आन्दोलन ,अवधारणाओं की अपनी अपनी ऐतिहासिक स्थिति रही है । विचारों को उचित स्थान तभी मिल पाता है जब उसे सामाजिक स्वीकृति प्राप्त हो । बिना सामाजिक स्वीकृति के आपके विचारों को वैधता नही मिलती ।किसी को कोई अधिकार नहीं कि वह किसी की सीमा का अनायास ही अतिक्रमण करते दिखें । सबका विचार अपनी सीमा में स्वतंत्र हैं ।

किसी पूर्वाग्रह के वशीभूत कब तक जनता कॊ अपनी सीमाओं रहने के लिये कहना उचित होगा । जब तक अपनी पहचान स्थायित्व की ओर बढ़ते हुए न दिखेंगे कोई भी आपकी ओर बढ़ता न दिखेगा । वाद विवाद को गति देने से अनेक ऐसे गड़े मुद्दे बंद बोतल से निकले हुए जिन्न की तरह सामने आ खड़ा होगा और मामला सुलझने की बजाय उलझना शुरु हो जायगा ।

अब बहुत हो चुका । आवश्यकता इस बात की है एक बार फिर अपने उस मोड़ से सबक ले बढ़ें उस ओर जिसके निमित्त हम कृतसंकल्पित हो चले थे । अन्यथा हमारा उद्देश्य असफल हो जायेगा । हम हिन्दी सेवक हैं । हमारा उद्देश्य हिन्दी सेवा ही है न कि विवादों को जन्म देना । ये विवाद हमें जब अपने सींखचों मे जकड़ लेंगे । इस नागफांस से बच निकलना बहुत ही कठिन होगा ।

विवादों को तूल देने से घात प्रतिघात , खेमेबाजी , छीटाकशी आदि को बढा़वा मिलता है । ऐसा नहीं होना चाहिए । हम सब हिन्दी सेवी हैं हमारा काम हिन्दी की मनोयोग से सेवा करना ही उचित है और साथ ही हर उस व्यक्ति के मार्ग में रचनाधर्मिता के संदंर्भ में आ रहे रोड़ों को येन केन प्रकारेण हटाना है ।

हिन्दी सेवा ! भारत सेवा !

Saturday, September 19, 2009

तेजी से उभर रही अर्थव्यवस्था : कितना सच .....!

भारतीय अर्थव्यवस्था के संबंध में कुछ स्वप्नलोकी आशाएं सामने आ रही हैं । हाल ही में प्रधानमन्त्री डा० मनमोहन सिंह जी की अध्यक्षता में हुई योजना आयोग की बैठक में पिछले वित्त वर्ष की विकास दर नौ फीसदी से काफी कम रही थी।योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया का मानना है कि देश के लिये अगला छः माह अत्यन्त महत्वपूर्ण है । संभव है कि देश की अर्थव्यवस्था पटरी पर आ जाय ।

भारत में पूंजी निवेश की संभावनायें निरन्तर बढ़ रही हैं । ऐसा माना जाय तो इसमे अतिशयोक्ति न होगी । पूंजी निवेश से अपार संभावनाओं को बल मिलेगा । जब कभी भी ऐसा हुआ सकारात्मक परिणाम सामने देखने को मिला है । देश की जनता ने हमेशा प्रगति के मार्ग की अपेक्षा की है । ऐसा देख कर जो बात सामने आती है वह है अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करना ।

श्री अहलूवालिया की बात यदि रंग लायी , संभव है सार्थक परिणाम सामने आ जांय । विश्व की मंदी से भारत के अछूते होने की बात कितनी मात्रा में सच होगी यह तो समय ही बतायेगा । सुधर रहा आर्थिक परिवेश विदेशी निवेशकों को कितना आकर्षित कर सकेगा । ऐसा संभव हुआ तो विश्व स्तर पर हमारी पहचान तेजी से उभर रही अर्थव्यवस्था के रूप में होगी ।

किसी भी देश की अर्थव्यवस्था उसकी जान होती है । जब तक अर्थव्यवस्था नहीं मजबूत होगी विकास कार्यों को किस हद तक बढ़ावा मिलेगा ?

Wednesday, September 16, 2009

परमाणु उर्जा के क्षेत्र में भारत के बढ़ते कदम...!

परमाणु उर्जा के क्षेत्र में भारत के बढ़ते कदम को देखकर आने वाले समय में बेहतरी का अन्दाजा लगाना स्वाभाविक है ।
भारत की यात्रा पर आये मंगोलिया के राष्ट्रपति साखियगिन एल्बेगदोर्ज और भारत के प्रधानमंत्री डा० मनमोहन सिंह के बीच हुई वार्ता में परमाणु उर्जा व चार अन्य करारों पर हस्ताक्षर हुआ । जिसमें सांस्कृतिक आदान - प्रदान, चिकित्सा सहयोग, सांख्यिकी आंकड़ो का आदान - प्रदान को लेकर चर्चा हुई ।

मंगोलिया से पहले अब तक भारत ने अमेरिका, फ्रांस, रूस व कजाकिस्तान से समझौता किया है । इन देशों से मिलने वाला यूरेनियम हमारे परमाणु बिजली संयन्त्रों के काम आयेगा । ये सारे प्रयास यदि निर्धारित समय से अपनी मंजिल की ओर पहुंचे तो वह दिन दूर नही कि हमें भरपूर मात्रा में बिजली मिलेगी ।

परमाणु उर्जा को लेकर भारत की जागरूकता के संबंध में यह कहा जा सकता है कि अपने उद्देश्यों को लेकर किये जा रहे प्रयासों में तेजी की आवश्यकता है । यदि ऐसा हुआ तो हमें विद्युत और विद्युतीकरण को लेकर आ रही कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ेगा । किसी भी देश के विकास में उसके प्राकृतिक व गैर प्राकृतिक संसाधनो का बहुत योगदान होता है । इनके बीच सामंजस्य का भाव बनाकर ही लम्बी अवधि तक उर्जा प्राप्त किया जा सकता है अन्यथा असन्तुलन को बढ़ावा मिलेगा और आने वाले समय में और संकट की स्थिति से दो - चार होना पडे़गा ।

Tuesday, September 15, 2009

पर्यावरणीय जागरुकता को लेकर.......!

प्रयोग यदि सही तरीके से हो ,परिणाम खुद ब खुद रंग दिखाने लगते हैं । कुछ ऐसा ही नजारा देखने को मिला । पास के एक गांव में । एक नुक्क्ड़ नाटक के माध्यम से पर्यावरणीय जागरूकता को लेकर मंचन हो रहा था ।उसका मुख्य उद्देश्य बुन्देलखण्ड व विन्ध्य क्षेत्र में कम से कम पांच सौ करोड़ पौधों के वृक्षारोपण को ले कर था । गांव में मन्दिर के पास अपने उद्देश्यों को ले कर जन जागरूकता के प्रति किया गया प्रयास कहीं से कमतर प्रतीत नहीं हो रहा था ।

लोगों में इसकी सार्थकता का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि हर वर्ग के लोग,बूढ़े,वयस्क,महिलाएं,बच्चे सभी अधिक संख्या में उपस्थित थे । अभिनेता अपने अभिनय से सबको लुभाये जा रहा था । हंसलोल बातों के बीच-बीच में काम की बातें इस प्रकार कह जाता था कि सभी उसकी बात से प्रभावित हो जाते थे । वृक्ष लगाने को ले कर सभी कृतसंकल्पित हो रहे थे ।

सचमुच ! यदि हमारी सरकार जितना पैसा वृक्षारोपण को ले कर खर्च कर रही है उसका सौ फीसदी सही तरीके से उपयोग में लाया जाय तो जनता उत्कृष्ठ काम देखकर बिना समझाये समझ जायेगी कि उसे अपने पर्यावरण के कितना जागरूक होना है । स्वाभाविक है अपेक्षित परिणाम सामने आने लगंगे । जब तक खुद में पारदर्शिता का आभाव रहेगा किसी और से कितना आगे आने के लिए प्रेरित कर सकेंगे ।

अरे...! ये पब्लिक है । सब जानती है ।

Monday, September 14, 2009

आईये...! हिन्दी दिवस पर ....!

"आज पहली बार ऐसा संविधान बना है जबकि हमने अपने संविधान में एक भाषा रखी है जो संघ की भाषा होगी।"
- डा० राजेन्द्र प्रसाद

हमें अपनी भाषा मिली
सविधान सभा में
शुरू हुई बहस
१२सितम्बर १९४९ को
चार बजे अपराह्न से
हुई समाप्त
१४ सितम्बर १९४९ को
स्थान मिला
संविधान के भाग - १४ व
वर्तमान भाग-१७ में ।

काम - काज के रूप में हिन्दी आज नये - नये पड़ाव से हो कर गुजर रही है ।
आईये...! हिन्दी दिवस पर हम सभी आमूल चूल रूप में अपना सार्थक योगदान दें ।

Saturday, September 12, 2009

भारत-चीन सीमा विवाद

समय-समय पर चीन अपनी वास्तविकता का परिचय देता आ रहा है कि वह भारत के बारे में क्या सोचता है । सीमा के अतिक्रमण  की बात नयी नहीं । अपनी कमजोरियों के चलते भारत को १९६२ में हार का सामना भी करना पड़ा है पर अब वह हालात नहीं कि आसानी से जिसको जो करना है कर के निकल जायेगा।माकूल जवाब देने में भारत आज समर्थ है । सीमा के अतिक्रमण से चीन बाज नहीं आ रहा । सीधे तौर पर चीन अपना रुख साफ नहीं कर रहा ।

आज भारत भी अपने लिये सैन्य व सुरक्षा की दृष्टि सक्षम है । चाहे चीन लाख प्रयास कर ले पर उसके मंसूबे पूरे नहीं हो सकते । एशिया में भारत अपनी पहचान हर स्तर पर साबित कर रहा है । किसी भी बहकावे में आने की स्थिति आज नहीं ।

Thursday, September 10, 2009

मानवाधिकारों की अवधारणा के विकास के संदर्भ में

मानवाधिकार संबंधी साक्ष्य प्राचीन विचार तथा प्राकृतिक अधिकारो की दार्शनिक अवधारणाओं में भी विद्यमान है । प्लेटो (427-348 B.C.) प्रथम चिन्तक रहा है जिसने नैतिकता की बात की ,कहा कि व्यक्तियों को सार्वजनिक कल्याण के लिये कार्य करना चाहिए ।अरस्तू ने भी अपनी पुस्तक पालिटिक्स में लिखा कि न्याय सद्गुण और अधिकार भिन्न -भिन्न प्रकार के संविधानों और परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होते रहते हैं । सिसरो ने कहा कि ऐसी सार्वभौमिक विधियां होनी चाहिए जो रुढ़िगत नागरिक अधिकारों से श्रेष्ठ हो ।

यूनान में नागरिकों को विभिन्न मौलिक अधिकार प्रदान किये गये ,ऐसे ही अधिकार रोम में रोमवासियों को सुनिश्चित कराये गये । स्पष्ट है कि मानवाधिकारों की अवधारणा की उत्पत्ति सामान्यतया ग्रीक, रोमन, प्राकृतिक विधि के स्टोयसिज्म के सिद्धान्तों में पाया जाता है । उन्नीसवीं सदी तक कई राज्यों ने अपने संविधानों में मानवाधिकारों की रक्षा के लिये प्रावधान निश्चित कर दिये थे किन्तु उन अधिकारों को मानवाधिकार नहीं कहा जाता था । मानवाधिकार शब्द सर्वप्रथम थामस पेन ने किया था जो कि फ्रांसीसी घोषणा में पुरुषों के अधिकारों का अनुवाद है ।

वर्तमान समय में प्रत्येक वर्ष 10 दिसम्बर को मानवाधिकार दिवस मनाया जाता है। यूनेस्को,यूनिसेफ,और संयुक्त राष्ट्र संघ अन्य एजेंसिया मानवाधिकार पर चर्चा करती हैं ,वाद-विवाद,सेमिनार होते हैं ,रिपोर्टें जारी होती हैं । इन सबका उद्देश्य मानवाधिकारों के हनन को रोकना है और मानवाधिकारों के प्रति जगरूकता फैलाना है । भारत एक कृषि प्रधान देश है जिसकी दो तिहाई जनसंख्या गांवों मे निवास करती है । अब तक यहां निवास करने वालों का कितना ध्यान रखा जा रहा है ? आधी दुनिया को ये मानवाधिकार कहां तक प्राप्त हो पाया है । सं० राष्ट्र० इस संबंध में कितना सफल हो पाया है ? कहीं मानवाधिकार ऐसे उपकरण तो नहीं बनते जा रहे जिसके माध्यम से सामरिक व आर्थिक हितों की पूर्ति की जाती हो । आज विकसित देश भारत को मानवाधिकारों की रक्षा करने का पाठ पढ़ाने की बात करके खुद को हास्यास्पद स्थिति में डाल रहे हैं । भारत नेअपने यहां मानवाधिकारों की रक्षा के लिए विषेश प्रावधान किये हैं । यहां अब अल्पसंख्यकों के प्रति किसी भी प्रकार का भेदभाव करना संभव नहीं ,इस संबंध में किसी भी व्यक्ति द्वारा अनुचित कदम उठाने पर तत्काल कार्यवाही की जाती है । भारत "मानवाधिकारों की विश्वव्यापी घोषणा" के प्रति बचनबद्ध है।

(क्रमशः)

Tuesday, September 8, 2009

मानवाधिकारों के प्रकार

मानवाधिकारों के प्रकार --
                            ये अदेय व अविभाज्य हैं।संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा मानवाधिकारों के क्षेत्र में किए गये प्रयासों के आधार पर इसे चार प्रकारों में बांट सकते हैं--

नागरिक मानवाधिकार(Civil Human Rights)--
                              इस प्रकार के अधिकारों मे प्राण,स्वतन्त्रता एवं व्यक्तियों की सुरक्षा,एकान्तता का अधिकार, गृह व पत्राचार ,संपत्ति रखने का अधिकार,उत्पीड़न से स्वतन्त्रता,मानवीय एवं अपमानजनक व्यवहार से स्वतन्त्रता का अधिकार,विचार,अन्तरात्मा एवं धर्म तथा आवागमन की स्वतन्त्रता आदि शामिल है।
राजनीतिक मानवाधिकार--(Political Human Rights)--
                                             राष्ट्रीयता ,विचार व अभिव्यक्ति ,सरकार में शामिल होना,शान्तिपूर्वक सभा एवं संघ गठित करने का अधिकार शामिल है ,साथ ही मत देने का अधिकार,निर्वाचन में निर्वाचित होने का अधिकार, लोक कार्यों मे चयनित प्रतिनिधियों के माध्यम से भाग लेने का अधिकार आदि  को राजनीतिक मानवाधिकारों के अन्तर्गत रखा गया है ।
सामाजिक व आर्थिक मानवाधिकार--(Social and Economic Human Rights)--
                                                               इन अधिकारों के बिना मानव का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है । इसमें सामाजिक सुरक्षा कार्य करने , आराम करने व अवकाश प्राप्त करने ,कुशल जीवन जीने के लिये आवश्यक जीवनस्तर बनाये रखने के लिये पर्याप्त भोजन वस्त्र ,आवास, काम के अधिकार, सामाजिक सुरक्षा,मानसिक स्वास्थ्य व शिक्षा का अधिकार शामिल है ।
सांस्कृतिक मानवाधिकार--(Cultural Human Rights)--
                                                विभिन्न स्थान पर निवास करने वालों की अपनी-अपनी संस्कृतियां होती हैं । 
जिन्हें संरक्षित करने का अधिकार मानव जाति को है । १९६८ में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार सम्मेलन में कहा गया--
                                 चूंकि मानवाधिकार एवं मूलभूत स्वतंत्रताएं अविभाज्य हैं इसलिये आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक अधिकारों  के उपयोग के बिना सिविल व राजनैतिक आधिकारों की पूर्ण प्राप्ति असंगत है ।
                                  महासभा ने १९७७ में यह भी कहा था कि सभी प्रकार के मानवाधिकार एवं मूलभूत स्वतंत्रताएं अविभाज्य और अन्योन्याश्रित होते हैं । १९९३ के वियना सम्मेलन में भी इस बात पर जोर दिया गया---
          सभी मानव अधिकार सार्वभौमिक , अविभाज्य ,अन्योन्याश्रित व अन्तर्संबंधित है । अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय को वैश्विक रूप के समान आधार एवं समान बल पर समान तरीके से समझना चाहिए |


                                                                                                                    (क्रमशः.... )

Sunday, August 30, 2009

मानव अधिकार

           मानव एक व्यक्तिगत सत्ता का स्वामी है। नि:सन्देह वह सामाजिक प्राणी भी है। उसके अधिकारों को दबाया नहीं जा सकता। भारतीय सन्दर्भों में मानवाधिकारों की चर्चा पहले से रही है लेकिन मूर्त रूप में मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम-१९९३ के प्रभावी होने के बाद हुआ। वर्ल्ड कान्फ्रेंस आफ ह्युमन राइट्स -१९९३में हुई घोषणा
में कहा गया है-  सभी मानव अधिकार व्यक्ति में गरिमा और अन्तर्निहित योग्यता से लिए गये हैं। डी.डी.बसु के अनुसार- मानवाधिकार ऐसे न्यूनतम अधिकार हैं जो किसी व्यक्ति को मानव परिवार हैसियत से राज्य या किसी सार्वजनिक सत्ता के समक्ष प्राप्त हो। इनकी संकल्पना व्यापक है,इसे निश्चित दायरे में समेटा नहीं जा सकता। ये अधिकार अदेय हैं। इनकी रक्षा का दायित्व सभी को है।
          मनुष्य की ओर से उनकी अधिकारों के सन्दर्भ में संचेतना ने राज्य को संरक्षण के प्रति जागरूक बना दिया है। मानव को उनकी आवश्यकता के परिणामस्वरूप अपमान से संरक्षित किया जाना चाहिए। ऐसे अधिकारों के सन्दर्भ मे यह कहना उचित है कि मानवाधिकारों की इच्छा केवल संगठित समुदाय अर्थात राज्य में ही कर सकता है। जहां समाजिक व्यवस्था अस्तित्व में हो। कोई भी व्यक्ति अराजक स्थिति में
मानवाधिकारों के संरक्षण की कल्पना भी नहीं कर सकता।


                                                                                           क्रमश:....... अगली प्रविष्टि में।                   

Tuesday, August 25, 2009

सूचना का अधिकार : समस्यायें व समाधान

आज विश्व सूचना और संचार क्रान्ति के दौर से गुजर रहा है। सूचना प्रौद्योगिकी ने सम्पूर्ण विश्व को एक विश्व गाँव में परिवर्तित कर दिया है। इसका किस हद तक प्रजातांत्रिक प्रणाली में उपयोग हो पाया है ? प्रजातांत्रिक प्रणाली में जनसूचना अधिकार की महत्ता किस हद तक है, यह अध्ययन का विषय है। सूचना के अधिकार की औचित्यपूर्णता के सम्बन्ध में ‘हेराल्ड जे0 लास्की और कर्ट आइनजर’ ने बताया है -

‘‘जिन लोगों को सही सूचनायें नहीं प्राप्त नहीं हो रहीं हैं उनकी आजादी असुरक्षित है। उसे आज नहीं तो कल समाप्त हो ही जाना है। ‘सत्य’ किसी भी राष्ट्र की सबसे बड़ी थाती होता है जो लोग, जो संस्थायें उसे दबाने उसे छिपाने का प्रयास करती हैं अथवा उसके प्रकाश में आ जाने से डरती हैं, ध्वस्त और नष्ट हो जाना ही उनकी नियति है।’’

जनसूचना अधिकार से तात्पर्य सूचना के अधिकार अधिनियम के अधीन योग्य सूचनाएं प्राप्त करने से है जो किसी लोक प्राधिकारी द्वारा उसके नियंत्रण क्षेत्र से प्राप्त किया जा सकता है। भारत में सूचना अधिकार अधिनियम 11 मई, 2005 को पारित हुआ और उसके 121 दिन बाद 12 अक्टूबर, 2005 को जम्मू काष्मीर को छोड़कर सम्पूर्ण भारत में लागू कर दिया गया। अधिनियम की धारा 2(1) के अनुसार आम नागरिकों को निम्नलिखित अधिकार प्राप्त है -

    1    किसी दस्तावेज, पाण्डुलिपि या अभिलेखों का निरीक्षण।
    2    किसी दस्तावेज या अभिलेखों के नोट्स संक्षेपण या सत्यापित प्रतियां प्राप्त करना।
    3    किसी वस्तु का प्रमाणित नमूना प्राप्त करना।
    4    जहां सूचना कम्प्यूटर या किसी अन्य माध्यम में हो तो उसे फ्लापी, सीडी, टेप, विडियो कैसेट आदि रूप में प्राप्त करना।इनमें रिकार्ड,दस्तावेज, ज्ञापन, आदेष, लाग-बुक, अनुबन्ध, रिपोर्ट, पत्रक, नमूना,प्रतिरूप, इलेक्ट्रानिक रूप में डाटा और किसी निजी संस्था से सम्बन्धित जानकारी शामिल है।

यह अधिकार भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार के रूप में अनु0 19 के 1 (क) के अधीन भाषण व अभिव्यक्ति से जुड़ा हुआ है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (1948) के अनु0 19 में ‘मत रखने एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर जोर दिया गया है। साथ ही नागरिक और राजनैतिक अधिकारों की अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा 1966 के अनु0 19 में भी मत रखने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लेख है। भारतीय संविधान के अनु0 21 में स्पष्ट शब्दों में लिखा है-

‘‘किसी व्यक्ति को उस के प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जा सकता है अन्यथा नहीं। तात्पर्य यह कि सूचना प्राप्ति के अधिकार को भारतीय संविधान के दो मौलिक अधिकार अनु0 19 (1) तथा अनु0 21 नागरिकों को दो मौलिक अधिकार उपलब्ध कराते हैं। कुछ ऐसी सूचनायें हैं जिन्हें प्राप्त करने से रोक है। सूचना के अधिकार अधिनियम के अनु0 8 (1) के अनुसार -

    1    जिस सूचना को सार्वजनिक करने से भारत की सम्प्रभुता, अखंडता, सुरक्षा, रणनीति सम्बन्धी हितों, वैज्ञानिक हितों, आर्थिक हितों या विदेशों के सम्बन्धों पर प्रतिकूल असर पड़ता हो या किसी अपराध को करने को उकसावा मिलता हो।
    2    जिस सूचना को प्रकट करने पर अदालत ने रोक लगा रखी हो या जिसे सार्वजनिक करने से अदालत की अवमानना होती हो।
    3    सूचना जिससे किसी तीसरे पक्ष की स्पर्धात्मक क्षति हो, यदि सक्षम अधिकारी संतुष्ट नहीं है कि सूचना देना व्यापक जनहित में है।
    4    वह सूचना जिससे किसी व्यक्ति का जीवन या सुरक्षा खतरे में पड़े या उस स्रोत की जानकारी मिले जिसने कानून व्यवस्था या सुरक्षा के लिये गोपनीयता से जानकारी या सहायता दी है।
    5    सूचना जिससे अपराधी की जाँच, धरपकड़ या उसे सजा देने पर विपरीत प्रभाव पड़े।
    6    मंत्रिमण्डल के ऐसे कागज-पत्र, जिनपर मंत्रियों, सचिवों और अन्य अधिकारियों के विचार-विमर्श की टिप्पणियों का रिकार्ड शामिल है।
    7    जिस सूचना को सार्वजनिक करना न तो लोक हित के लिये जरूरी है और न जिससे सार्वजनिक मकसद
पूरा होता है और जिससे किसी व्यक्ति के निजी जीवन और एकान्त के अधिकार पर प्रतिकूल असर पड़ता है।
    8    ऐसी सूचना जिसका सार्वजनिक किया जाना भले ही लोक हित में हो मगर जिसे जाहिर करने से संरक्षितों को ज्यादा नुकसान होता हो।

इन सबके बावजूद सार्वजनिक प्राधिकरण सूचना प्रदान करा सकता है यदि वह संतुष्ट है कि सूचना प्रदान करने से होने वाला जनहित उससे होने वाली क्षति से अधिक है।(अनु08(2)

समस्यायें -

सवाल यह है कि सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के लागू हो जाने के पष्चात इसके क्रियान्वयन में आ रही अड़चनों का सामना किस प्रकार किया जाय। प्रष्न का विषय है, यदि आप सूचना हासिल करके सम्बद्ध अधिकारियों को प्रस्तुत कर दें इसके बाद भी वह निष्क्रियता से पेष आये तो आम नागरिक क्या कर सकता है? इसके लिये सम्बन्धित अधिकारियों को जनता के प्रति उत्तरदायी होना पड़ेगा। जब जनता सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत दस्तावेज हासिल करके पारदर्शिता की माँग करती है तो कार्यवाही करने से सम्बन्धित अधिकारी इंकार कर देते हैं। प्रथम दृष्ट्या किसी भी प्रकार से आप सूचना प्राप्त कर लें और आप के साथ इस प्रकार का व्यवहार हो यह कहाँ तक उचित है? क्योंकि जनता को सूचना प्राप्त करने से पूर्व अत्यन्त तीव्र विरोध का सामना नौकरशाहों से करना पड़ता है। कुछ अधिकारियों का मानना है कि किसी फाइल नोटिंग को उजागर करने का प्रावधान अपने विचार व्यक्त करने में बाधक होगा, यह कहाँ तक उचित है? इस अधिनियम के लागू हो जाने के बाद अभी तक राज्य सरकारों ने अपनी प्रतिबद्धता और उत्साह का परिचय नहीं दिया है। सूचना के अधिकार की जानकारी केवल प्रबुद्ध वर्ग तक सीमित रह गयी है। बी0पी0एल0 श्रेणी के लोगों को ऐसी व्यवस्था दी गयी है कि वह निःषुल्क सूचना पाने के हकदार हैं पर क्या उनमें इस अधिकार के प्रति जागरुकता है? वे नौकरषाही से बच कर रहना जानते हैं क्योंकि सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन की गड़बड़ियों का षिकार होना शायद उनकी नियति है, ऐसा वह मानते हैं। यह आवश्यक नहीं कि मागे जाने पर स्पष्ट सूचना प्राप्त ही हो क्योंकि सरकारी कार्य व्यापार की जानकारी इन्हें भलीभाँति नहीं होती जिसका कारण इस अधिकार के उपयोग में समझ की कमी है।

सूचना के अधिकार का कानून लागू हो जाने के पश्चात इसकी प्रथम चुनौती शासन-प्रषासन में जनता तक सूचना को सुचारु रूप से उपलब्ध कराने की है जिसमें आला अधिकारियो से लेकर निचले कर्मचारी भी अपनी भूमिका पहचान सकें। इसके अन्य अवरोधों में राजनीतिक स्तरों पर उदासीनता और इन अधिकारों के प्रति जड़ता है। यह सच है कि केवल शीर्ष विधायक से सांसद के स्तर पर पक्ष एवं प्रतिपक्ष के जनप्रतिनिधियों द्वारा सूचना के अधिकार की लड़ाई को आत्मसात नहीं किया जायेगा तब तक इसे सफलतापूर्वक लागू करना असंभव है।

नागरिक किसी कार्यालय में जाकर कोई जानकारी या सरकारी दस्तावेज की माँग करे तो उसे औपचारिकत पूरी करने के बाद भी आसानी से सूचना प्राप्त नहीं होती, यह सच है। इन्हें उपेक्षित होना पड़ता है। जब तक जानकारी प्रदान करने की समुचित प्रणाली का विकास नहीं किया जायेगा तब तक यह प्रावधान मूर्त रूप में नहीं हो सकेगा। आज लोकतंत्र का ढिंढोरा पीटने वाली सरकार में यह सबसे बड़ी खामी है कि उसने लोकतंत्र मंे लोक की सहभागिता को उचित स्थान नहीं दिया है। जिसका परिणाम है कि आम आदमी में सरकारी कार्यों के प्रति उदासीनता रहती है। तात्पर्य यह है कि सूचना का अधिकार जनता का अधिकार है और जबतक अपने इस अधिकार का प्रयोग जनता बखूबी नहीं करेगी तबतक इसकी सार्थकता सिद्ध न हो सकेगी।


समाधान -

सूचना के अधिकार के समुचित प्रयोग से ही शासन एवं निजी क्षेत्रों में से सूचना प्राप्त कर हो रही खामियों को उजागर कर उन्हें दूर किया जा सकेगा। इसके लिये कुछ आवष्यक सुझाव इस प्रकार से हैं -

1. जनता के जीवन एवं उनके विकास कार्यक्रम की सूचना हर संभव प्रयास करके प्रसारित की जाय।
2. ऐसा अभियान चलाया जाय जिससे कि हर विभाग के अधिकारी सूचना प्रदान करने में कोताही न करें।
3. सूचना प्राप्त करने के लिये किसी कठिन प्रक्रिया का सामना न करना पड़े और आसानी से सूचना प्राप्त हो सके।
4. सूचना समय से उपलब्ध न कराने वाले अधिकारियों के खिलाफ कठोर कार्यवाही की जाय जिससे कि अन्य अधिकारियों को सबक मिल सके।
5. ई-शासन का सपना साकार हो जिसके लिये सूचना तकनीक से मुफीद और कोई रास्ता नहीं हो सकता क्योंकि इसके इस्तेमाल से ही शासन में पारदर्शिता एवं जवाबदेही को स्थान मिल सकेगा। ऐसा तभी संभव है जब शासन की सभी जानकारी जो लोकहित में हो, इण्टरनेट पर उपलब्ध हो।
6. इसे और असरदार बनाने के लिये यह आवष्यक है कि हर स्तर पर इसकी अनिवार्यता को स्थान मिले जिससे कि जनता को आसानी से सहभागी शासन में भूमिका प्राप्त हो सके।
7. सरकार में जनसहभागिता को स्थान प्राप्त हो।
8.शासन-तंत्र अपने कायों के प्रति पारदर्शी हो।
9. सूचना के अधिकार से प्रशासन में हो रहे भ्रष्टाचार को खत्म किया जा सकता है। क्योंकि गोपनीयता और भ्रष्टाचार में बड़ा ही ताल-मेल होता है, जिसका नाम मिटाना अत्यन्त आवष्यक है।
10. जनता मेम जानकारी माँगने और उसके प्रयोग करने का स्वभाव विकसित करना होगा।
11. जब तक सूचना पाने के अभियान पर बल नहीं दिया जायेगा तब तक इसका समुचित लाभ न मिल सकेगा।

स्पष्ट है कि सूचना के अधिकार को अभी अनेक पड़ाव से होकर गुजरना है। जबतक इसके सिद्धान्त और व्यवहार में समन्वय नहीं देखने को मिलेगा तब तक इसकी यथोचित सार्थकता सिद्ध नहीं हो सकेगी।

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