मानव एक व्यक्तिगत सत्ता का स्वामी है। नि:सन्देह वह सामाजिक प्राणी भी है। उसके अधिकारों को दबाया नहीं जा सकता। भारतीय सन्दर्भों में मानवाधिकारों की चर्चा पहले से रही है लेकिन मूर्त रूप में मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम-१९९३ के प्रभावी होने के बाद हुआ। वर्ल्ड कान्फ्रेंस आफ ह्युमन राइट्स -१९९३में हुई घोषणा
में कहा गया है- सभी मानव अधिकार व्यक्ति में गरिमा और अन्तर्निहित योग्यता से लिए गये हैं। डी.डी.बसु के अनुसार- मानवाधिकार ऐसे न्यूनतम अधिकार हैं जो किसी व्यक्ति को मानव परिवार हैसियत से राज्य या किसी सार्वजनिक सत्ता के समक्ष प्राप्त हो। इनकी संकल्पना व्यापक है,इसे निश्चित दायरे में समेटा नहीं जा सकता। ये अधिकार अदेय हैं। इनकी रक्षा का दायित्व सभी को है।
मनुष्य की ओर से उनकी अधिकारों के सन्दर्भ में संचेतना ने राज्य को संरक्षण के प्रति जागरूक बना दिया है। मानव को उनकी आवश्यकता के परिणामस्वरूप अपमान से संरक्षित किया जाना चाहिए। ऐसे अधिकारों के सन्दर्भ मे यह कहना उचित है कि मानवाधिकारों की इच्छा केवल संगठित समुदाय अर्थात राज्य में ही कर सकता है। जहां समाजिक व्यवस्था अस्तित्व में हो। कोई भी व्यक्ति अराजक स्थिति में
मानवाधिकारों के संरक्षण की कल्पना भी नहीं कर सकता।
क्रमश:....... अगली प्रविष्टि में।
आगे भी लिखो मित्र ।
ReplyDeleteमानव अधिकार केवल एक शब्द नही ं है इस पर विस्तार से सोचना ज़रूरी है -शरद कोकास दुर्ग छ.ग.
ReplyDeletemanvadhikaar ek dudhari talvaar bhi hai bhai, jo afzaloon ki fasiyan rukwa sakta hai...
ReplyDeleteविषय अच्छा चुना है।
ReplyDeleteअगली कड़ी की प्रतीक्षा है!
बहुत बढ़िया लिखा है आपने! बिल्कुल सच्चाई बयान किया है और बहुत ही सुंदर रूप से प्रस्तुत किया है!
ReplyDeleteमेरे नए ब्लॉग पर आपका स्वागत है-
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com
बहुत खुब, लाजवाब। शानदार कङी है, अगले का इन्तजार रहेगा।
ReplyDelete